कसमसाई हुई मुठ्ठी में सौ का नोट था... अन्धकार भरे दिन में जिला कामरूप से वो निकली थी... ऑटो की अगली लाईट में होती हुई बारिश में पानी के गुच्छे दीखते थे... जैसे धान की फसल खड़ी हो.... नदी पार करने में लगा चालीस मिनट चालीस साल के बाबर लम्बा था... ब्रह्मपुत्र की विशाल जलराशि जितना ही था अब तक प्रेम, इतनी ही मात्र में रह रहा था अब तक धैर्य ... और अब मिलन के तापमान का मापदंण्ड भी यही उफान था......
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लूटे हुए राह्गीर की तरह अब दोनों अपने घर को मुखातिब थे... नंगे पैरों में बस गीली मिटटी ही दे रही थी अब ठंढक लेकिन फिर भी ये अभी महसूस ना हो रहा था...
अस्वीकार के बाद प्यार उदार हो चला था.
"मुझे फोन करना" वाली इल्तजा के साथ मुश्किल से बचाए हुए, मुठ्ठी में बुरी तरह निचुड़ा हुआ सौ का नोट अब नदी के उफान से साथ बह रहा था...
जिस्म पर जब हवा का झोंका पड़ा लगा किसी ने तालाब में बड़ा सा पत्थर दे मारा हो। एक बड़ी जलराशि ने अपनी थिर जगह छोड़ी और पानियों का गुच्छा लरज़ कर टूटा।
/कट टू /
एक झील किनारे की सड़क पर खुली छत वाली जीप तेज़ी से गुज़रती है फिर अनाचक हम उसके तेज़ीपन को स्लो मोशन में दिखाते हैं। कैमरा पैन करता हुआ झील पार खड़े शीशम के छरहरे व्यस्क पेड़ों की तरफ जाता है। घने घने हरे पत्तों से लदे पेड़ अपने छायापन में कालापन लिए हुए है। दो पेड़ों के बची प्र्याप्त दूरी है फिर भी फुगनी इतनी हल्की है कि उनमें गलबाहियां हो रही हैं। कैमरा पैन करता हुआ झील में इस मिलन की परछाई दिखाता है।
/कट टू/
मछली कई दफा रात को सांस लेने के बहाने चांद को देख आती है। डुबकी से उबरते हुए जब भी नदी की सतह पर आती है कुछ बुलबुले छोड़ जाती है। आज पूर्णिमा की रात है। चांदनी का असर से मछलियां ज्यादा ही चमक रही हैं। सारी मछलियां डाॅल्फिन में बदल गई लगती है जो इस रोशनी से नहाई हुई समां में कलाबाजियां दिखा रही हैं। मछली की अंगराई चांद के लिए ही है। मछली यह जता तो रही है मगर बता नहीं रही कि मैंने तुम्हारा महीने भर इंतज़ार किया है और आज जब आए हो तो मुझे तुम्हारी कोई गरज नहीं। मछलियों के कमर में ज़माने भर के वियोग का दम और मिलन की बेताबी बल खा रही है।
/कट टू /
एक बांझ औरत अपने कमरे में किसी अनजाने बच्चे को दूध पिलाने का असफल प्रयास कर रही है। बच्चे को अपने सीने उसे भींच ज़ार ज़ार रोती है और जब यह ख्याल आता है कि कोई बाहर सुन लेगा तो अचानक बेआवाज़ रोती है। मद्धम स्वर में सितार झंकृत होता है। धीरे धीरे तेज़ होता जाता है।
/कट टू/
नुक्कड़ पर कोई छोटा सा सर्कस लगा है। एक हल्का अक्स झूले का, रस्सी पर चलते नकली दाढ़ी मूंछ लगाए लड़की का, एक छोटा बच्चा के डफली बजाने का, सुधा डेयरी प्राजेक्ट का लोगो लगा उल्टा रखा हुए कैरेट्स, बस में टिकट काटता कंडक्टर, मोबाइल रिचार्ज कराता आदमी, क्लास में कानी उंगली उठा शू शू की परमिशन मांगता बच्चा, स्टूडियो लेट पहुंचता कलाकार, यू आई आई के कैंटीन में किसी खास के लिए थाली में रखा ठंडा होता उत्तपाम।
एक भंवर बनता है, गोल गोल घूमता है, धीरे धीरे ऊपर उठता है। किसी ने ताड़ के पेड़ पर चढ़ने वाली रबड़ की ट्यूब जैसे हवा में उछाली है।
हम दिखाते हैं कि एक अधेड़ अँधा आदमी अपने गाँव के घर पर आया हुआ है. कई बरस बाद वो अपने घर पर वो लौटा है. मिटटी का घर जो बहुत पुराना तो है लेकिन जिसकी देखभाल पडोसी द्वारा की जाती है... दीवार अपने तरह से नयी लग रही है... एक ख़ास किस्म की गंध आती है.. इसमें अतीत की यादें तो हैं ही जो उस आदमी को परेशान कर रही हैं... अपने घर की दीवारों को टटोलते हुए वो अपने ही भीतर उतर रहा है... कुछ भूला हुआ, धुंधलाती हुई याद... कुछ याद घर से बाहर की भी .... द्वार की भी, भूसे घर में बैठ कर अचार खाते हुए भी... लगभग हफ्ते भर पहले ही उसपर गीली मिटटी का लेप फिर से चढ़ा है...
हम दिखाते हैं कि वो आदमी ज़मीन पर पड़ा हुआ है फूट फूट कर रोने के बाद कोहनी की टेक लगा कर थोडा उठता है फिर एक हाथ से दीवार का सहारा ले दूसरा अपने घुटनों पर रख कर धीरे धीरे उठता है... उसकी उँगलियाँ एक बेहद संवेदी अंग है... जो उसकी ज्ञानेन्द्रियों का सा काम करती है पहले वो अपने तर्जनी से कुछ छूता है, फिर बारी बारी मध्यमा, अनामिका और कनिष्का का इस्तेमाल करता है और जब ये चार उँगलियाँ उसके दिमाग में कोई एक निश्चित खाका खींच देती है तो वो अंगूठे से आखिरी रूप में उसे मुकम्मल तौर पर टटोलता है...अंगूठे का इस्तेमाल वो उन अनदेखे चीजों पर हस्ताक्षर करने के लिए करता है .. जैसे उस आकर को उसने अब समझ लिया है.
वो कमर तक सीधा खड़ा हो चूका होता है की उसकी बांकी उंगलियाँ दीवार में उभरे एक ताखे से टकराती है, जो थोडा ही उभरा है.. आदतन चारो उँगलियों से वो उसे टटोलने के बाद उस पर अंगूठा रखता है... उसे याद आता है कि शाम ढले यहाँएक डिबिया जला करती थी... सहसा सारी यादें ढह जाती है और घर कि दीवार उसे कोई नारी देह सा मुलायम लगता है, उसमें से एक मादा गंध आती है और ताखा उस देह को टटोलने में अप्रत्याशित रूप से स्तन में बदल जाता है...
अधेड़ उम्र का आदमी बच्चे में तब्दील हो जाता है, घर की पुरानी दीवार बूढी माँ में भूरा ताखा ढीले स्तन में...
सुबह के दस बजे रहे हैं. बाहर बारिश है. एक छात्र आधा भीगा हुआ कोचिंग के कैम्पस में सायकिल को पिछले स्टैंड पर बड़े जतन से चढ़ाता है. शर्ट के ऊपर के दो बटन खुले हैं. उसी में औंधा चश्मा लेटा है... जिसकी एक डंडी उसके छाती के बालों में उतरे हैं... अन्दर बीजगणित पढ़ाने वाले मास्टर की कक्षा चल रही है... जिनका कोड M2R है... क्लास में सन्नाटा पसरा है. बारिश कम है और अँधेरा ज्यादा...
मास्टर बोर्ड पर एक सवाल का हल लिख रहा है. चॉक तेज़ी से चल रही है.. लगता है मास्टर के हाथ से छूट जायेगी.... खट खट की आवाज़ के साथ एक चॉक का अपने हर अंतिम लकीर पर मिमियाहट की आवाज़ आ रही है. पूरे कमरे में चॉक राग ही बज रहा है. बाहर से आया हुआ छात्र किनारे वाले बेंच पर बैठता है... कमरे में हल्का अँधेरा है... बाहर से आने पर शुरू के कुछ एक मिनट उसे साफ़ नज़र नहीं आते... उस दौरान वह सिर्फ चॉक का शोर सुनता है...फिर अक्षर हलके हलके उगते हैं... लेकिन चॉक के बोर्ड पर बजने की वो आवाज़ गहराती जाती है...
ऐसा लगता है उसके दिमाग को घर के पिछवाड़े वाले कारखाने में पलट का ठोका जा रहा है... ओह नहीं! ऐसा नहीं है वह अपना माथा पकड़ लेता है... ऊपर पंखा दो की स्पीड पर चल रहा है... चॉक राग बज रहा है, एकाग्रता में शोर है.... शोर अपने में एकाग्र है... बोर्ड पर पड़ते चॉक की आवाज़ एक तंग मकान की सीढ़ी से जल्दबाजी में उतरते सैंडल की आवाज़ में डीजोल्व हो जाती है...
मानव मन, संवेदी तंतु, याद पैठी हुई, गहरे धंसी हुई...
फिल्म कौन था, ये जो ऊपर कहा गया है या जो इसके आगे शुरू होगा ?
कुर्सी पर बैठ वो अपना सर पीछे करती है. बाल एक झटके से खुल जाते हैं. लम्बे, काले, लगभग घुंगराले बाल बरगद के लटों सी नीचे तक चले आते हैं. एकबारगी किसी जाल सा लगता है जो अनजाने लोगों को उठाने के लिए जंगल में गिराया जाता हो. ये बाल ड्राइंग रूम में लटके झूमर से झूल रहे हैं. दायें-बाएं घुमते इनसे जयपुरी जूतों सी चड़मड़ाहट की आवाज़ आ रही है. दिवाली के मौके पर लिया गया तह-ब-तह झालर सा खुलता बाल...
किसी रात उसे दोनों बाहों में जकड अपने ऊपर बीती विपदा कहना...
छिटकी हुई धूप केटुकड़े में वाॅश बेसिन पर रूके कुछ बूंद... नहा कर उल्टी तरफ धूप में बैठना, पीठ सेंकना। अतीत के एल्बम से ताश पत्तों में इक्के सा फिल्टर हो किसी खास चेहरे को धूप की तिरछी लंबाई तक सोचना... किसी बिना पलस्तर दीवार पर उभरे सीमेंट पर कबूतर के अपने दोनों पांवों को टिकाने की जद्दोज़हद... पीली सी खिली रोशनी में अखबार के एक कागज पर खरी हल्दी, लाल मिर्च और धनिया का सूखना।
सामने पैर पसार पर अपनी टांगों पर मुग्ध होना, कानी उंगलियों पर छूटते अलते के रंग को देख आखिरी बार कब और किसने लगाई थी याद करना.... होमवर्क करती बच्ची के पीछे तेल मलती, जूड़े बनाती बैठी उसकी मां... छतों पर तिरछे तारों पर पिन किया हुआ नमी खाया, सूखता ब्रा...
ध्वनि तरंगों पर कसे काले मढ़े चमरे के छिद्र से आती आवाजें... पहचाने हुए स्टेशनों पर चुनिन्दा गीतों की तलाश में अनजान जगहों पर टियून होते किसी चीनी स्टेशन से गुज़रते हुए "हूं, होये मून हिन् चाएं नो पी नी चोयो सुनते"... तत्क्षण किसी दूसरे स्टेशन के रडार क्षेत्र में आते हल्की की पतली धुन, बैंड पर फौजियों के बूटों की आवाजें... बीच बीच में टूटती हुई.. बैकग्राउंड से चिढ़ते किसी अवरोध बनता कोई शिकायत... एक दूसरे पे चढ़ता कोई स्वर... रात की स्तब्धता और तन्द्रा भंग करते टुकड़े... सबदे हुए कलेजे पर मरहम बनती कई आवाज़... बहुत से बैकग्राउंड स्कोर... एक से दूसरे में मिक्स होती आवाजें... आवाजों का चेहरे... छायागीत.
लगभग अंधेरे के आलोक में चिकने, हल्के तैलीय, जूते के पॉलिश वाला ढ़क्कन सा हल्का, अभी-अभी खुल कर अपने वृत्ताकार परिधि से सरका हुआ। अंदर अब-डब करता दिन के तेज़ धूप में रख दिए गए गीले, महके, आयोडेक्स सी - आंखें। हल्की-हल्की दाएं-बांए डोलती, किसी हीरे की दूकान में छोटे लाल मखमली बटुए में रखे कंचे से, मर्तबान में उड़ेले हरे आंवले से, ट्रेन की रिजर्वेशन बोगी में आधी रात लेट हुए मद्धम मद्धम हिलते शरीर जैसे- आँखें।
दो बूंद आई ड्रोप्स डालो तो वापस गाल की दीवार पर फेंक देती किंतु सिर्फ अपने स्तर पर खूब रोना जानती । गहरे हलके गीलेपन में डूबी लालिमा, डोरे के पास रुका तरल, एक याचक सी - आँखें.