Thursday, May 21, 2015


उसकी भवें गेंदा पत्ते के मेहराब जैसी लगती है। उसकी पलकें खजूर के पत्तों जैसी जिसके मार्फत चांदनी रात को मैं अपने अटारी से चांद को जलते बुझते देखा करता हूं। ऐसा लगता है कि वो अपने पलकें खोलती है तो चांद दिखता है और बंद करती है तो चांद कुछ पल के लिए मेरी आंखों से ओझल हो जाता है। हांलांकि इस क्रम में हवा का योगदान भी रहता है। उसकी आंखें किसी रानी की तरह अपनी जगह पर स्थिर रहती है और हवा जैसे चंवर डुलाता रहता है और इसी क्रम में चांद की लुकाछिपी चलती है।

मुझको जाने कितनी लड़की छू कर गुज़रती है। अब तो सबके चेहरे गड्डमड्ड लेकिन न जाने  मुझमें जाने कितनी लड़की बसी है।

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शराब, नमाज़, पिछवाड़े पर लग रही लात, बिना पसीने का थका हुआ वो जिस्म जहां बेसुधी इस कदर हो जाए कि नशे में बिफरूं और दूसरी मंज़िल का पता पता पूछूं, पता बताने वाले उसी गली में बाजू में है बाजू में है कह कर मुझसे दिल्लगी करते रहें।
...और अगली सुबह जब किसी खराब बल्ब वाले सिमेंटेड पोल के नीचे आंख खुले तो पता चले कि हम अपनी ही गली में थे। किसको क्या कहें?

Friday, May 8, 2015

प्रेम में मैं एक रिरयाती स्त्री हूं।


शहर के आखिरी सरहद पर लगा कूड़ादान मेरे पश्चाताप का ढे़र है। रोज़ कई वाहन ढ़ेर सारा अफसोस वहां और जमावड़ा लगा आते हैं। 

प्रेमचंद सही आदमी थे। लेखन संबंधी दायित्व का बड़ा भारी एहसास था उनको। लिखते हैं- मैं कलम का सिपाही हूं, जिस दिन न लिखूं, मुझे रोटी का अधिकार नहीं। कुछ इन्हीं सब तरह की चीज़ों को पढ़कर ज़हर पी के सो रहने का मन होता है। पर प्रेमचंद स्थिर चित्त वाले व्यक्ति थे, घटनाओं को सापेक्ष और निरपेक्ष भाव के देखने का हुनर था उनमें। मेरे अंदर बहुत उमस होती है तभी बारिश हो पाती है। अब तो वो भी नहीं होती।

ज़िंदगी लगती है जैसे ब्लैक कॉमेडी है। मैं तेज़ाब में सींचा जा रहा हूं। कमाल की बात है आप जिसके कारण बर्बाद हुए उसे बता नहीं सकते। हद है भाई कह भी नहीं सकते। 

वो जितना देती है मेरी जरूरत उतनी ही बढ़ती जाती है। 
प्रेम में मैं एक रिरयाती स्त्री हूं।

दिल तो पसीज आता होगा एक क्षण को उसका भी जब मैं उससे कहता हूं कि मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। तुम्हीं मेरी उपलब्धि और पराजय हो। तुम्हारे साथ में ही मेरा सुख है। मुझे तुम्हारे बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कुछ भी नहीं भाता। भात का कौर कोई सूखा चबाया हुआ च्यूंगम लगता है। और भी बहुत कुछ....लेकिन उसे इतनी सारी बातें मैं कहूं कैसे..... समझने की बात है, फिर भी कहता हूं। फिर वो क्या चीज़ होती है कि उसकी चाहत क्षण भर के बाद रफूचक्कर हो जाती है। 

किसी की जिंदगी में आकर फिर से उसे तबाह कर देना दिल्लगी नहीं तो क्या है मज़े की बात यह है कि यह मुझे अच्छा भी लग रहा है। परसों बाद जाने कितना पी लेने के बाद अपनी पूरी ताकत से दीवार से टकरा गया। 
वह इतनी जादूगर है कि कुछ पता नहीं चलता। मैं उसके साथ एक बार संभोग करना चाहता हूं, तभी मेरा मेरे माथे पर सवार उसका भूत उतरेगा। मुझे उससे एक बच्चा चाहिए।

Tuesday, May 5, 2015

+ (-) =


दिन अभी ढ़ला नहीं था। धूप मद्धम पड़ी थी। नारंगी लाली लिए गोला। असज्र ऊर्जा का स्त्रोत सूर्य आंखों को भला लग रहा था। नेचर नाम के डायरेक्टर ने से सूर्य को टहकदार रंग दे रखा था। पवन चक्की और बांव के झुटपुटे से झिलमिल कर आ रही उसकी रोशनी में एक ठंडापन लिए रंगीनी थी। कैनवास पर बाल्टी भर लाली एक ही जगह गिर कर एकदम से लाल स्पॉट बनाती। ऑफिस से ज़रा देर की मोहलत लेकर बाहर निकला। त्वचा अचानक से ताज़ी हो गई। तीन दिन बाद धूप खुली थी। दिन में ऑफिस के अंदर ही रहने की आदत घुटन के साथ मजबूरी भी है। चीज़ें हमारे पास ही बिखरी हैं, समाधान हमारे साथ आइसपाइस खेलती है। हमहीं अपने आवरण में इतने ट्टटू हो जाते हैं इस बनावटीपन का वलय नहीं तोड़ पाते। हमारी सीमाएं होती हैं, मनःस्थिति कि हमें जब तलक दुःख भोगना है, प्रेम में पड़े, गड़े और मरे रहना है, हम रहेंगे ही। हमें कोई दर्शन काम नहीं आने वाला, हमें कोई उस भंवर से नहीं निकाल सकता। उसे टाइम देना होगा। तो क्या धैर्य आर्त आवाज़ में डूबी प्रार्थना का दूसरा नाम है ?

मैं आगे बढ़ा। सड़क का सूखापन और गीलापन 40 और 60 के अनुपात में था। दिल्ली की हल्की ठंड के दिन सम्मानित महसूस करवाता है। जाती जनवरी में जब शीशम के पत्ते झरने लगे हैं और बुहारे जाने से ज्यादा उनका गलियों में सूखना और सड़ना अच्छा लगता है। हमारे की-बोर्ड की खट-खट, हमारे उठाए गए रिसीवर, चार्ज में लगाए गए मोबाइल, लाइन-अप किए गए आर्टिस्ट, साऊंड स्टूडियो में हो रही मिक्सिंग की प्रक्रिया, ई-मेल भेजना, अप्रूवल लेना, एडिट करना, री-राइट करना, गीत में ट्रांजिशन देना सब, सब कुछ पुराना पड़ गया है। मैंने महसूस किया कि मैं भी पुराना पड़ गया हूं। पुराना, कई साल पुराना। हम पुराने हो जाते हैं।

शीशम के पत्ते वैसे याद के हल्के हल्के सिराओं जैसे होते हैं। हवा में सरसराते हैं। चुटकी-चुटकी पकड़ में आते हैं। कोई गर्म उघड़ा जख्म हो और उसे हौले हौले सिराया जा रहा हो।

पार्क में रखी, पिछली रात की बारिश में नहाई लकड़ी और सीमेंट की साफ और धुली हुई बेंचें किसी के इंतज़ार में घुटनों ज़मीन में धंसी हुई है। इन बेंचों को देखने पर लगता है जैसे यह इस पर बैठ कर गए हुए लोगों से संवाद करने की प्रतीक्षा में बैठा है। किसी ने कुछ सोचा और एक झटके से उठ खड़ा हुआ। किसी ने कोई फैसला लिया और उठ गया। ये बेंचें ‘फिर क्या हुआ’ की तर्ज पर दास्तां सुनने की अवस्था लिए हुए। अधेड़ उम्र लिए हुए हैं बेंचें। इन बेंचों के लिए हम हमेशा एक जल्दबाज़ किशोर होते हैं। एक बुढ़ाता पाया जिसके घुटने की हड्डियां अब कमज़ोर हो रही हैं। जो अब इस आस में रहना शुरू करता है कि फलाना उठेगा तो हमें पानी देगा।

क्या सचमुच हम टाइमली सुन पाते हैं? एक पल को लगता तो है। फिर चूक कहां हो जाती है? या कि जिंदगी चूकने को ही बनी है? क्या ये ठीक नहीं होगा कि हमें रिश्ते बनाकर आगे निकल जाना चाहिए बिना ये सोचे कि हमने उसके साथ कहां क्या गलत किया! हम सब कुछ छोड़ कर आगे कैसे बढ़ सकते हैं? या सब कुछ छोड़ कर आगे बढ़ ही जाना सही है। साला हर जगह पॉलीटिकली करेक्ट होने की हमारी आदर्शवादी स्थिति.....


Friday, April 26, 2013

चकलाघर के कमरे


काठ की गंदी सी कुर्सी, छह बाई आठ के सिलसिलेवार बंद बंद कमरे, दीवारों पर सरसों तेल, वैसलीन के रह जाते, काम के बीच में छींक देती मेहनतकश मजदूर। जो हुआ करते कभी एकदम मासूम, अब पाजामे में लेकर आते उतने ही गिने रोकड़े।

अलगनी पर टंगे आधे दर्जन से अधिक बदहाल ब्लाउज। कमरा ही नहीं यहां की मजदूरनी भी खुद को जब्त रखती। एक भंवर उठता और हंसने, खांसने, चीखने, गालियां देने और भागने की आवाज़ों का कोलाज।

होम करना।

Saturday, March 31, 2012

कौन हम है कौन तुम हो..., है, हो या था ?



कसमसाई हुई मुठ्ठी में सौ का नोट था... अन्धकार भरे दिन में जिला कामरूप से वो निकली थी... ऑटो की अगली लाईट में होती हुई बारिश में पानी के गुच्छे दीखते थे... जैसे धान की फसल खड़ी हो.... नदी पार करने में लगा चालीस मिनट चालीस साल के बाबर लम्बा था... ब्रह्मपुत्र की विशाल जलराशि जितना ही था अब तक प्रेम, इतनी ही मात्र में रह रहा था अब तक धैर्य ... और अब मिलन के तापमान का मापदंण्ड भी यही उफान था......
 
XXXXX

लूटे हुए राह्गीर की तरह अब दोनों अपने घर को मुखातिब थे... नंगे पैरों में बस गीली मिटटी ही दे रही थी अब ठंढक लेकिन फिर भी ये अभी महसूस ना हो रहा था... 

अस्वीकार के बाद प्यार उदार हो चला था.

"मुझे फोन करना" वाली इल्तजा के साथ मुश्किल से बचाए हुए, मुठ्ठी में बुरी तरह निचुड़ा हुआ सौ का नोट अब नदी के उफान से साथ बह रहा था... 

ब्रह्मपुत्र में बाढ़ आई है..


Tuesday, March 20, 2012

नर्तन


 



जिस्म पर जब हवा का झोंका पड़ा लगा किसी ने तालाब में बड़ा सा पत्थर दे मारा हो। एक बड़ी जलराशि ने अपनी थिर जगह छोड़ी और पानियों का गुच्छा लरज़ कर टूटा।

/कट टू /

एक झील किनारे की सड़क पर खुली छत वाली जीप तेज़ी से गुज़रती है फिर अनाचक हम उसके तेज़ीपन को स्लो मोशन में दिखाते हैं। कैमरा पैन करता हुआ झील पार खड़े शीशम के छरहरे व्यस्क पेड़ों की तरफ जाता है। घने घने हरे पत्तों से लदे पेड़ अपने छायापन में कालापन लिए हुए है। दो पेड़ों के बची प्र्याप्त दूरी है फिर भी फुगनी इतनी हल्की है कि उनमें गलबाहियां हो रही हैं। कैमरा पैन करता हुआ झील में इस मिलन की परछाई दिखाता है।

/कट टू/

मछली कई दफा रात को सांस लेने के बहाने चांद को देख आती है। डुबकी से उबरते हुए जब भी नदी की सतह पर आती है कुछ बुलबुले छोड़ जाती है। आज पूर्णिमा की रात है। चांदनी का असर से मछलियां ज्यादा ही चमक रही हैं। सारी मछलियां डाॅल्फिन में बदल गई लगती है जो इस रोशनी से नहाई हुई समां में कलाबाजियां दिखा रही हैं। मछली की अंगराई चांद के लिए ही है। मछली यह जता तो रही है मगर बता नहीं रही कि मैंने तुम्हारा महीने भर इंतज़ार किया है और आज जब आए हो तो मुझे तुम्हारी कोई गरज नहीं। मछलियों के कमर में ज़माने भर के वियोग का दम और मिलन की बेताबी बल खा रही है।

/कट टू /

एक बांझ औरत अपने कमरे में किसी अनजाने बच्चे को दूध पिलाने का असफल प्रयास कर रही है। बच्चे को अपने सीने उसे भींच ज़ार ज़ार रोती है और जब यह ख्याल आता है कि कोई बाहर सुन लेगा तो अचानक बेआवाज़ रोती है। मद्धम स्वर में सितार झंकृत होता है। धीरे धीरे तेज़ होता जाता है।

/कट टू/

नुक्कड़ पर कोई छोटा सा सर्कस लगा है। एक हल्का अक्स झूले का, रस्सी पर चलते नकली दाढ़ी मूंछ लगाए लड़की का, एक छोटा बच्चा के डफली बजाने का, सुधा डेयरी प्राजेक्ट का लोगो लगा उल्टा रखा हुए कैरेट्स, बस में टिकट काटता कंडक्टर, मोबाइल रिचार्ज कराता आदमी, क्लास में कानी उंगली उठा शू शू की परमिशन मांगता बच्चा, स्टूडियो लेट पहुंचता कलाकार, यू आई आई के कैंटीन में किसी खास के लिए थाली में रखा ठंडा होता उत्तपाम।

एक भंवर बनता है, गोल गोल घूमता है, धीरे धीरे ऊपर उठता है। किसी ने ताड़ के पेड़ पर चढ़ने वाली रबड़ की ट्यूब जैसे हवा में उछाली है।


Friday, March 16, 2012

मुक्ति


 




हम दिखाते हैं कि एक अधेड़ अँधा आदमी अपने गाँव के घर पर आया हुआ है. कई बरस बाद वो अपने घर पर वो लौटा है. मिटटी का घर जो बहुत पुराना तो है लेकिन जिसकी देखभाल पडोसी द्वारा की जाती है... दीवार अपने तरह से नयी लग रही है... एक ख़ास किस्म की गंध आती है.. इसमें अतीत की यादें तो हैं ही जो उस आदमी को परेशान कर रही हैं... अपने घर की दीवारों को टटोलते हुए वो अपने ही भीतर उतर रहा है... कुछ भूला हुआ, धुंधलाती हुई याद... कुछ याद घर से बाहर की भी .... द्वार की भी, भूसे घर में बैठ कर अचार खाते हुए भी... लगभग हफ्ते भर पहले ही उसपर गीली मिटटी का लेप फिर से चढ़ा है...

हम दिखाते हैं कि वो आदमी ज़मीन पर पड़ा हुआ है फूट फूट कर रोने के बाद कोहनी की टेक लगा कर थोडा उठता है फिर एक हाथ से दीवार का सहारा ले दूसरा अपने घुटनों पर रख कर धीरे धीरे उठता है... उसकी उँगलियाँ एक बेहद संवेदी अंग है... जो उसकी ज्ञानेन्द्रियों का सा काम करती है पहले वो अपने तर्जनी से कुछ छूता है, फिर बारी बारी मध्यमा, अनामिका और कनिष्का का इस्तेमाल करता है और जब ये चार उँगलियाँ उसके दिमाग में कोई एक निश्चित खाका खींच देती है तो वो अंगूठे से आखिरी रूप में उसे मुकम्मल तौर पर टटोलता है...अंगूठे का इस्तेमाल वो उन अनदेखे चीजों पर हस्ताक्षर करने के लिए करता है ..  जैसे उस आकर को उसने अब समझ लिया है.

वो कमर तक सीधा खड़ा हो चूका होता है की उसकी बांकी उंगलियाँ दीवार में उभरे एक ताखे से टकराती है, जो थोडा ही उभरा है.. आदतन चारो उँगलियों से वो उसे टटोलने के बाद उस पर अंगूठा रखता है... उसे याद आता है कि शाम ढले यहाँ  एक  डिबिया जला करती थी... सहसा सारी यादें ढह जाती है और घर कि दीवार उसे कोई नारी देह सा मुलायम लगता है, उसमें से एक मादा गंध आती है और ताखा उस देह को टटोलने में अप्रत्याशित रूप से स्तन में बदल जाता है... 

अधेड़ उम्र का आदमी बच्चे में तब्दील हो जाता है, घर की पुरानी दीवार बूढी माँ में भूरा ताखा ढीले स्तन में...

...और अब बच्चे का अंगूठा उस पर है.