Friday, January 13, 2012

दोपहर


छिटकी हुई धूप  के टुकड़े में वाॅश बेसिन पर रूके कुछ बूंद... नहा कर उल्टी तरफ धूप में बैठना, पीठ सेंकना। अतीत के एल्बम से ताश पत्तों में इक्के सा फिल्टर हो किसी खास चेहरे को धूप की तिरछी लंबाई तक सोचना... किसी बिना पलस्तर दीवार पर उभरे सीमेंट पर कबूतर के अपने दोनों पांवों को टिकाने की जद्दोज़हद... पीली सी खिली रोशनी में अखबार के एक कागज पर खरी हल्दी, लाल मिर्च और धनिया का सूखना।

सामने पैर पसार पर अपनी टांगों पर मुग्ध होना, कानी उंगलियों पर छूटते अलते के रंग को देख आखिरी बार कब और किसने लगाई थी याद करना.... होमवर्क करती बच्ची के पीछे तेल मलती, जूड़े बनाती बैठी उसकी मां... छतों पर तिरछे तारों पर पिन किया हुआ नमी खाया, सूखता ब्रा...

शरीर में निरंतर उग आते भार का सीलन छुड़ाता...
दोपहर।

1 comment:

  1. शरीर की सीलन छुड़ाने वाली ऐसी फ़ुर्सत भरी दोपहरें किस्सों-कहानियों और यादों के सिवा भी कहीं बची है क्या अब?

    ReplyDelete