Saturday, January 21, 2012

लट









कुर्सी पर बैठ वो अपना सर पीछे करती है. बाल एक झटके से खुल जाते हैं. लम्बे, काले, लगभग घुंगराले बाल बरगद के लटों सी नीचे तक चले आते हैं. एकबारगी किसी जाल सा लगता है जो अनजाने लोगों को उठाने के लिए जंगल में गिराया जाता हो. ये बाल ड्राइंग रूम में लटके झूमर से झूल रहे हैं. दायें-बाएं घुमते इनसे जयपुरी जूतों सी चड़मड़ाहट की आवाज़ आ रही है. दिवाली के मौके पर लिया गया तह-ब-तह झालर सा खुलता बाल... 


किसी रात उसे दोनों बाहों में जकड अपने ऊपर बीती विपदा कहना... 

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