Saturday, March 31, 2012

कौन हम है कौन तुम हो..., है, हो या था ?



कसमसाई हुई मुठ्ठी में सौ का नोट था... अन्धकार भरे दिन में जिला कामरूप से वो निकली थी... ऑटो की अगली लाईट में होती हुई बारिश में पानी के गुच्छे दीखते थे... जैसे धान की फसल खड़ी हो.... नदी पार करने में लगा चालीस मिनट चालीस साल के बाबर लम्बा था... ब्रह्मपुत्र की विशाल जलराशि जितना ही था अब तक प्रेम, इतनी ही मात्र में रह रहा था अब तक धैर्य ... और अब मिलन के तापमान का मापदंण्ड भी यही उफान था......
 
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लूटे हुए राह्गीर की तरह अब दोनों अपने घर को मुखातिब थे... नंगे पैरों में बस गीली मिटटी ही दे रही थी अब ठंढक लेकिन फिर भी ये अभी महसूस ना हो रहा था... 

अस्वीकार के बाद प्यार उदार हो चला था.

"मुझे फोन करना" वाली इल्तजा के साथ मुश्किल से बचाए हुए, मुठ्ठी में बुरी तरह निचुड़ा हुआ सौ का नोट अब नदी के उफान से साथ बह रहा था... 

ब्रह्मपुत्र में बाढ़ आई है..


1 comment:

  1. सवाल-दर-सवाल जिंदगी तामीर होती है..जवाब-दर-जवाब ढहती जाती है..जिंदगी के लंबे सफ़र के लिये नामालुम तकलीफ़देह सवालों के खारों का जेहन के नंगे पैरों मे पेवस्त होना जरूरी जान पड़ता है..पूरनचंद के सवालों का जवाब हम भी खोज रहे हैं..बस खोजना हैं..जानना नही हो कुछ..

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