Thursday, May 21, 2015


उसकी भवें गेंदा पत्ते के मेहराब जैसी लगती है। उसकी पलकें खजूर के पत्तों जैसी जिसके मार्फत चांदनी रात को मैं अपने अटारी से चांद को जलते बुझते देखा करता हूं। ऐसा लगता है कि वो अपने पलकें खोलती है तो चांद दिखता है और बंद करती है तो चांद कुछ पल के लिए मेरी आंखों से ओझल हो जाता है। हांलांकि इस क्रम में हवा का योगदान भी रहता है। उसकी आंखें किसी रानी की तरह अपनी जगह पर स्थिर रहती है और हवा जैसे चंवर डुलाता रहता है और इसी क्रम में चांद की लुकाछिपी चलती है।

मुझको जाने कितनी लड़की छू कर गुज़रती है। अब तो सबके चेहरे गड्डमड्ड लेकिन न जाने  मुझमें जाने कितनी लड़की बसी है।

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शराब, नमाज़, पिछवाड़े पर लग रही लात, बिना पसीने का थका हुआ वो जिस्म जहां बेसुधी इस कदर हो जाए कि नशे में बिफरूं और दूसरी मंज़िल का पता पता पूछूं, पता बताने वाले उसी गली में बाजू में है बाजू में है कह कर मुझसे दिल्लगी करते रहें।
...और अगली सुबह जब किसी खराब बल्ब वाले सिमेंटेड पोल के नीचे आंख खुले तो पता चले कि हम अपनी ही गली में थे। किसको क्या कहें?

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