Friday, May 8, 2015

प्रेम में मैं एक रिरयाती स्त्री हूं।


शहर के आखिरी सरहद पर लगा कूड़ादान मेरे पश्चाताप का ढे़र है। रोज़ कई वाहन ढ़ेर सारा अफसोस वहां और जमावड़ा लगा आते हैं। 

प्रेमचंद सही आदमी थे। लेखन संबंधी दायित्व का बड़ा भारी एहसास था उनको। लिखते हैं- मैं कलम का सिपाही हूं, जिस दिन न लिखूं, मुझे रोटी का अधिकार नहीं। कुछ इन्हीं सब तरह की चीज़ों को पढ़कर ज़हर पी के सो रहने का मन होता है। पर प्रेमचंद स्थिर चित्त वाले व्यक्ति थे, घटनाओं को सापेक्ष और निरपेक्ष भाव के देखने का हुनर था उनमें। मेरे अंदर बहुत उमस होती है तभी बारिश हो पाती है। अब तो वो भी नहीं होती।

ज़िंदगी लगती है जैसे ब्लैक कॉमेडी है। मैं तेज़ाब में सींचा जा रहा हूं। कमाल की बात है आप जिसके कारण बर्बाद हुए उसे बता नहीं सकते। हद है भाई कह भी नहीं सकते। 

वो जितना देती है मेरी जरूरत उतनी ही बढ़ती जाती है। 
प्रेम में मैं एक रिरयाती स्त्री हूं।

दिल तो पसीज आता होगा एक क्षण को उसका भी जब मैं उससे कहता हूं कि मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। तुम्हीं मेरी उपलब्धि और पराजय हो। तुम्हारे साथ में ही मेरा सुख है। मुझे तुम्हारे बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कुछ भी नहीं भाता। भात का कौर कोई सूखा चबाया हुआ च्यूंगम लगता है। और भी बहुत कुछ....लेकिन उसे इतनी सारी बातें मैं कहूं कैसे..... समझने की बात है, फिर भी कहता हूं। फिर वो क्या चीज़ होती है कि उसकी चाहत क्षण भर के बाद रफूचक्कर हो जाती है। 

किसी की जिंदगी में आकर फिर से उसे तबाह कर देना दिल्लगी नहीं तो क्या है मज़े की बात यह है कि यह मुझे अच्छा भी लग रहा है। परसों बाद जाने कितना पी लेने के बाद अपनी पूरी ताकत से दीवार से टकरा गया। 
वह इतनी जादूगर है कि कुछ पता नहीं चलता। मैं उसके साथ एक बार संभोग करना चाहता हूं, तभी मेरा मेरे माथे पर सवार उसका भूत उतरेगा। मुझे उससे एक बच्चा चाहिए।

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