Tuesday, May 5, 2015

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दिन अभी ढ़ला नहीं था। धूप मद्धम पड़ी थी। नारंगी लाली लिए गोला। असज्र ऊर्जा का स्त्रोत सूर्य आंखों को भला लग रहा था। नेचर नाम के डायरेक्टर ने से सूर्य को टहकदार रंग दे रखा था। पवन चक्की और बांव के झुटपुटे से झिलमिल कर आ रही उसकी रोशनी में एक ठंडापन लिए रंगीनी थी। कैनवास पर बाल्टी भर लाली एक ही जगह गिर कर एकदम से लाल स्पॉट बनाती। ऑफिस से ज़रा देर की मोहलत लेकर बाहर निकला। त्वचा अचानक से ताज़ी हो गई। तीन दिन बाद धूप खुली थी। दिन में ऑफिस के अंदर ही रहने की आदत घुटन के साथ मजबूरी भी है। चीज़ें हमारे पास ही बिखरी हैं, समाधान हमारे साथ आइसपाइस खेलती है। हमहीं अपने आवरण में इतने ट्टटू हो जाते हैं इस बनावटीपन का वलय नहीं तोड़ पाते। हमारी सीमाएं होती हैं, मनःस्थिति कि हमें जब तलक दुःख भोगना है, प्रेम में पड़े, गड़े और मरे रहना है, हम रहेंगे ही। हमें कोई दर्शन काम नहीं आने वाला, हमें कोई उस भंवर से नहीं निकाल सकता। उसे टाइम देना होगा। तो क्या धैर्य आर्त आवाज़ में डूबी प्रार्थना का दूसरा नाम है ?

मैं आगे बढ़ा। सड़क का सूखापन और गीलापन 40 और 60 के अनुपात में था। दिल्ली की हल्की ठंड के दिन सम्मानित महसूस करवाता है। जाती जनवरी में जब शीशम के पत्ते झरने लगे हैं और बुहारे जाने से ज्यादा उनका गलियों में सूखना और सड़ना अच्छा लगता है। हमारे की-बोर्ड की खट-खट, हमारे उठाए गए रिसीवर, चार्ज में लगाए गए मोबाइल, लाइन-अप किए गए आर्टिस्ट, साऊंड स्टूडियो में हो रही मिक्सिंग की प्रक्रिया, ई-मेल भेजना, अप्रूवल लेना, एडिट करना, री-राइट करना, गीत में ट्रांजिशन देना सब, सब कुछ पुराना पड़ गया है। मैंने महसूस किया कि मैं भी पुराना पड़ गया हूं। पुराना, कई साल पुराना। हम पुराने हो जाते हैं।

शीशम के पत्ते वैसे याद के हल्के हल्के सिराओं जैसे होते हैं। हवा में सरसराते हैं। चुटकी-चुटकी पकड़ में आते हैं। कोई गर्म उघड़ा जख्म हो और उसे हौले हौले सिराया जा रहा हो।

पार्क में रखी, पिछली रात की बारिश में नहाई लकड़ी और सीमेंट की साफ और धुली हुई बेंचें किसी के इंतज़ार में घुटनों ज़मीन में धंसी हुई है। इन बेंचों को देखने पर लगता है जैसे यह इस पर बैठ कर गए हुए लोगों से संवाद करने की प्रतीक्षा में बैठा है। किसी ने कुछ सोचा और एक झटके से उठ खड़ा हुआ। किसी ने कोई फैसला लिया और उठ गया। ये बेंचें ‘फिर क्या हुआ’ की तर्ज पर दास्तां सुनने की अवस्था लिए हुए। अधेड़ उम्र लिए हुए हैं बेंचें। इन बेंचों के लिए हम हमेशा एक जल्दबाज़ किशोर होते हैं। एक बुढ़ाता पाया जिसके घुटने की हड्डियां अब कमज़ोर हो रही हैं। जो अब इस आस में रहना शुरू करता है कि फलाना उठेगा तो हमें पानी देगा।

क्या सचमुच हम टाइमली सुन पाते हैं? एक पल को लगता तो है। फिर चूक कहां हो जाती है? या कि जिंदगी चूकने को ही बनी है? क्या ये ठीक नहीं होगा कि हमें रिश्ते बनाकर आगे निकल जाना चाहिए बिना ये सोचे कि हमने उसके साथ कहां क्या गलत किया! हम सब कुछ छोड़ कर आगे कैसे बढ़ सकते हैं? या सब कुछ छोड़ कर आगे बढ़ ही जाना सही है। साला हर जगह पॉलीटिकली करेक्ट होने की हमारी आदर्शवादी स्थिति.....


1 comment:

  1. लौट आना लेकिन अपने पते पर नहीं...इस गुमनाम पते पर जिसे हमारे जैसे कुछ जिद्दी लोग नोट करके रखे हुए हैं...क्या ये पोलिटिकली करेक्ट है? ये जो लिखे हो इसे लिखना भूलना कहते हैं?
    "तो क्या धैर्य आर्त आवाज़ में डूबी प्रार्थना का दूसरा नाम है ?
    मैं आगे बढ़ा। सड़क का सूखापन और गीलापन 40 और 60 के अनुपात में था."
    तुम्हारी एक पोस्ट में आँसू और पसीने से रिलेटेड कोई बात है और आखिर में सवाल...अनुपात वहां कितना मायने रखता है...

    तुम्हें देखना सुकून है...मेरे दिमाग में अभी सुकून और बदहवासी में १० बटे ९० का अनुपात चल रहा है. इसमें तुम्हारा पोस्ट पढ़ते हैं तो अनुपात जरा जरा खिसक कर पच्चीस बटे पचत्तर हुआ जाता है. क्या यह कोई अचीवमेंट है? बताओ न सागर हम लिखते क्यूँ हैं? लिख के क्या हो जाएगा? जैसा हो लिखो...लेकिन लिखो...और जा के अज़दक का पॉडकास्ट सुनो...वही....लिखो लिखो लिखो लिखो लिखो...कव्वा खिड़की पर...

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