Saturday, October 8, 2011

इति





बाथरूम के हल्के अंधेरे में।

नल के लगभग चार हाथ नीचे रखी बाल्टी। जब नल का गुणा बीच में हो, पानी मोटे एकरैखिक लकीर की तरह गिरती हुई। आसमानी बाल्टी में पीले रंग का मग। बीचोंबीच उतराता हुआ। मग की कमर पर उपर से गिरती पानी की धार से छिटकता। मँझधार। मंझधार में डोलता हवा से हल्के नाव की तरह जिसकी न कोई पाल है न पतवार। पानी की छिटकन ऐसी मानो लोहे की राॅड में बेल्ट की तरह छेद किए गए हों और उससे पानी इन्द्रधनुष की तरह निकल रहा हो। कभी कभी मग चिहुंक पड़ती है जब पानी उसके पूंछ पर गिरती है। उसके सर में तेज़ सा चक्कर। घिरनी की तरह। पलट का फिर वहीं, कुछ नहीं बदला। बदला तो इस दरम्यान पानी के गिरने का शोर मात्र।

फिर अचानक मग तेज़ पलटती है। आधे भरे मग का मुंह बाथरूम के छत की ओर। शंकर के जटा गंगा पीती हुई। मग का अवसान।                गर्रर्रर्ऱ..............र्रर्र.... प्प। 

एक डुबकी इति। 

चंद बुलबुले शेष। 
                                         हू ू ू ू ू ू ू ू......।


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