मुख्य सड़क से कोयले खदान तक के बीच की दूरी...
शुष्क सी सड़क है। दरअसल सड़क नहीं रास्ता भर है। उन पर कोयले का बुरादा फैला है। एक भी ट्रैक्टर गुज़रे तो गुबार सा उठता है। हाथ को हाथ नहीं दिखते फिर। बूंदाबांदी शुरू होती है। हर बूंद एक धब्बा बनाता है। धुंआ का एक उठाता है। पूरे रास्ते पर हल्की बूंदाबांदी होने लगती है। यह एकदम शुरूआती चरण है। दूर से देखने पर सड़क पर बिना किसी के चले ही हल्का हल्का कुछ उठने का दृश्य घनीभूत होता है।
कोई आकर कर उन उठते हुए बुरादों की परछाईयों को हाथ में भरने की कोशिश करता है। जब पकड़ में नहीं आने का यकीन होता है तो अपने को दिलासा देता हुआ हवा में मुठ्ठियां भांजने लगता है। कुछ नहीं आता। हथेली की लकीरों में बस एक गंध बचती सी लगती है।
अंधेरी, काली शाम के साये में एक जोड़ी इंतज़ारी आंखें जो अब उदासी के रंग में रंगकर एक आंखों वाली छाया ही नज़र आती है।
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