काठ की गंदी सी कुर्सी, छह बाई आठ के सिलसिलेवार बंद बंद कमरे, दीवारों पर सरसों तेल, वैसलीन के रह जाते, काम के बीच में छींक देती मेहनतकश मजदूर। जो हुआ करते कभी एकदम मासूम, अब पाजामे में लेकर आते उतने ही गिने रोकड़े।
अलगनी पर टंगे आधे दर्जन से अधिक बदहाल ब्लाउज। कमरा ही नहीं यहां की मजदूरनी भी खुद को जब्त रखती। एक भंवर उठता और हंसने, खांसने, चीखने, गालियां देने और भागने की आवाज़ों का कोलाज।
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